Read Online Valmiki Ramayan by IIT Kanpur
रामराज्य कथा
रामकथा महात्म्य
रामचन्द्रकथोपेतं
सूत उवाच
श्रृणुधुवमृषयः सर्वे यदिष्टं वो वदाम्यहम्।
गीतं सनत्कुमाराय नारदेन महात्मना॥१८॥
रामायणं महाकाव्यं सर्ववेदेषु सम्मतम्।
सर्वपापप्रशमनं दुष्टग्रहनिवारणम्॥१९॥
सूत जी ने कहा – मुनिवरों ! आप सभ लोग सुनिए, आपको जो सुनना अभीष्ट है, वह मैं बताता हूँ। महात्मा नारद जी ने सनत्कुमार को जिस रामायण नामक महाकाव्य का गान सुनाया था, वह समस्त पापों का नाश और दुष्ट ग्रहों की बाधा का निवारण करने वाला है। वह सम्पूर्ण वेदार्थों की सम्मति के अनुकूल है॥१८-१९॥
दुःस्वप्नाशनं धन्यं भुक्तिमुक्तिफलप्रदम्।
रामचन्द्रकथोपेतं सर्वकल्याणसिद्धिदम्॥२०॥
अर्थात- उससे समस्त दुःस्वप्नों का नाश हो जाता है। वह ध्न्यवाद के योग्य तथा भोग और मोक्षरूप फल प्रदान करनेवाला है। उसमें भगवान श्रीरामचन्द्र जी की लीलाकथा का वर्णन है। वह काव्य अपने पाठक और श्रोताओं के लिए समस्त कल्याणमयी सिद्धियों को देने वाला है॥२०॥
धर्मार्थकाम्मोक्षाणां हेतुभूतं महाफलम्।
अपूर्वम् पुण्यफलदं श्र्णुध्वं सुसमाहिता॥२१॥
अर्थात- धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष – इन चारों पुरुषार्थों का साधक है, महान फल देनेवाला है। यह अपूर्व काव्य पुण्यमय फल प्रदान करने की शक्ति रखता है। आपलोग एकाग्रचित होकर इसे श्रवण करें॥२१॥
महापातकयुक्तों वा युक्तो वा सर्वपातकैः।
श्रुत्वैत्दार्षं दिव्यं हि काव्यं शुद्धिमवापनुयात्॥२२॥
रामायणेन वर्तन्ते सुतरां ये जगद्धिताः।
त एव कृतकृत्याश्च सर्वशास्त्रार्थकोविदाः॥२३॥
अर्थात- महान पातकों अथवा सम्पूर्ण उपपातकों से युक्त मनुष्य भी उस ऋषिप्रणीत दिव्य काव्य का श्रवण करने से शुद्धि (अथवा सिद्धि) प्राप्त कर लेता है। सम्पूर्ण जगत के हित-साधन में लगे रहनेवाले जो मनुष्य सदा रामायण के अनुसार बर्ताव करते हैं, वे ही सम्पूर्ण शास्त्रों के मर्म को समझने वाले और कृतार्थ हैं॥२२-२३॥
धर्मार्थकाममोक्षाणां साधनं च द्विजोत्तमाः।
श्रोतव्यं च सदा भक्त्या रामायणपरामृतम्॥२४॥
अर्थात- विप्रवरों! रामायण धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष का साधन तथा परम अमृत रूप है; अतः सदा भक्तिभाव से उसका श्रवण करना चाहिए॥२४॥
पुरार्जितानि पापानि नाशमायान्ति यस्य वै।
रामायणे महाप्रीतिस्तस्य वै भवति ध्रुवम्॥२५॥
अर्थात- जिस मनुष्य के पूर्व जन्मोपार्जित सारे पाप नष्ट हो जाते हैं, उसी का रामायण के प्रति अधिक प्रेम होता है। यह निश्चित बात है॥२५॥
रामायणे वर्तमाने पापपाशेन यन्त्रितः।
अनादृत्य अस्द्गाथासक्तबुद्हिः प्रवर्तते॥२६॥
अर्थात- जो पाप बंधन में जकड़ा हुआ है, वह रामायण की कथा आरंभ होने पर उसकी अवहेलना करके दूसरी-दूसरी निम्नकोटि की बातों में फँस जाता है। उन सद्गाथाओं में अपनी बुद्धि के आसक्त होने के कारण वह तदनुरूप ही बर्ताव करने लगता है॥२६॥
रामायणं नाम परं तु काव्यं, सुपुण्यदं वै श्रृणुत द्विजेन्द्राः।
यस्मिञ्छुते जन्मजरादिनाशो, भावतादोषः स नरोऽच्युतः स्यात्॥२७॥
इसलिए द्विजेन्द्रगण ! आप लोग रामायण नामक परम पुण्यदायक उत्तम काव्य का श्रवण करें, जिसके सुनने से जन्म, जरा और मृत्यु के भय का नाश हो जाता है तथा श्रवण करने वाला मनुष्य पाप-दोष से रहित हो अच्युतस्वरुप हो जाता है॥२७॥
वरं वरेण्यं वरदं तु काव्यं, संतारयुत्याशु च सर्वलोकम्।
संकल्पितार्थप्रदमदिकाव्यमं, श्रुत्वा च रामस्य पदम् प्रयाति॥२८॥
रामायण काव्य अत्यंत उत्तम, वरणीय और मनोवाञ्छित वर देनेवाला है। वह उसका पाठ और श्रवण करनेवाले समस्त जगत को शीघ्र ही संसार सागर से पार कर देता है। उस आदिकाव्य को सुनकर मनुष्य श्री रामचंद्र जी के परम पद को प्राप्त कर लेता है।
ब्रह्मेशविष्णवाख्यशरीरभेदैर्विश्र्वं सृजत्यत्ति च पाति यश्र्च।
तमादिदेवं परमं वरेण्यमाधाय चेतस्युपयाती मुक्तिम्॥२९॥
जो ब्रह्मा, रूद्र और विष्णु नामक भिन्न-भिन्न रूप धारण करके विश्व की सृष्टि, संहार और पालन करते हैं, उन आदिदेव परमोत्कृष्ट परमात्मा श्री रामचंद्र जी को अपने ह्रदय-मंदिर में स्थापति करके मनुष्य मोक्ष का भागी होता है॥२९॥
यो नामजात्यादिविकल्पहीनः, परावराणां परमः परः स्यात्।
वेदान्तवेद्यः स्वरुचा प्रकाशः, स वीक्ष्यते सर्वपुराणवेदैः॥३०॥
जो नाम तथा जाति आदि विकल्पों से रहित, कार्य-कारण से परे, सर्वोत्कृष्ट, वेदान्त शास्त्र के द्वारा जानने योग्य एवं अपने ही प्रकाश से प्रकाशित होनेवाला परमात्मा है, उसका समस्त वेदों और पुराणों के द्वारा साक्षात्कार होता है (इस रामायण के अनुशीलन से भी उसी की प्राप्ति होती है।)
ऊर्जे माघे सिते पक्षे चैत्रे च द्विजसत्तमाः।
नवाह्ना खलु श्रोतव्यं रामायणकथामृतम्॥३१॥
विप्रवरों ! कार्तिक, माघ और चैत्र मास के शुक्ल पक्ष में नौ दिनों में रामायण की अमृतमयी कथा का श्रवण करना चाहिये।
इत्येवं श्रृणुयाद् यस्तु श्रीरामचरितं शुभम्।
सर्वान् कामानवाप्नोति परत्रामुत्र चोत्तमान्॥३२॥
जो इस प्रकार श्री रामचंद्र जी के मंगलमय चरित्र का श्रवण करता है, वह इस लोक और परलोक में भी अपनी समस्त उत्तम कामनाओं को प्राप्त कर लेता है।
त्रिसप्तकुलसंयुक्तः सर्वपापविवर्जितः।
प्रयाति रामभवनं यत्र गत्वा न शोचते ॥३३॥
वह सब पापों से मुक्त हो अपनी इक्कीस पीढ़ियों के साथ श्री रामचंद्र जी के उस परम धाम में चला जाता है, जहाँ जाकर मनुष्य को कभी शोक नहीं करना पड़ता है।
चैत्रे माघे कार्तिके च सिते पक्षे च वाचयेत्।
नवाहस्सु महापुण्यं श्रोतव्यं च प्रयत्नतः ॥३४॥
चैत्र, माघ और कार्तिक के शुक्ल पक्ष में परम पुण्यमय रामायण-कथा का नवाह-परायण करना चाहिये तथा नौ दिनों तक इसे प्रयत्नपूर्वक सुनना चाहिए।
रामायणमादिकाव्यं सवर्गमोक्षप्रदायकम्।
तस्माद् घोरे कलियुगे सर्वधर्मबहिष्कृते ॥३५॥
नवभिर्दिनैः श्रोतव्यं रामायणकथामृतम्।
रामायण आदिकाव्य है। यह स्वर्ग और मोक्ष देनेवाला है, अतः सम्पूर्ण धर्मों से रहित घोर कलियुग आने पर नौ दिनों में रामायण की अमृतमयी कथा को श्रवण करना चाहिये।
रामनामपरा ये तु घोरे कलियुगे द्विजाः ॥३६॥
त एव कृतकृत्याश्च न कलिर्बाधते हि तान्।
ब्राह्मणों ! जो लोग भयंकर कलिकाल में श्रीराम-नाम का आश्रय लेते हैं, वे ही कृतार्थ होते हैं। कलियुग उन्हें बाधा नहीं पहुँचाता।
कथा रामायणस्यापि नित्यं भवति यद्गृहे ॥३७॥
तद् गृहं तीर्थरूपं हि दुष्टानां पापनाशनम्।
जिस घर में प्रतिदिन रामायण की कथा होती है, वह तीर्थरूप हो जाता है। वहाँ जाने से दुष्टों के पापों का नाश होता है।
तावत्पापानि देहेऽस्मिन् निवसन्ति तपोधनाः ॥३८॥
यावन्न श्रूयते सम्यक् श्रीमद्रामायणं नरैः।
तपोधनो ! इस शरीर में तभी तक पाप रहते हैं, जब-तक मनुष्य श्री रामायण कथा का भलीभाँति श्रवण नहीं करता।
दुर्ल्भैव कथा लोके श्रीमद्रामायणोद्भ्वा ॥३९॥
कोटिजन्मसमुत्थेन पुण्येनैव तु लभ्यते।
संसार में श्रीरामायण की कथा परम दुर्लभ ही है। जब करोड़ों जन्मों के पुण्यों का उदय होता है, तभी उसकी प्राप्ति होती है।
ऊर्जे माघे सिते पक्षे चैत्रे द्विजसत्तमाः ॥४०॥
यस्य श्रवणमात्रेण सौदासोऽपि विमोचितः।
श्रेष्ठ ब्राह्मणों ! कार्तिक, माघ और चैत्र के शुक्ल पक्ष में रामायण के श्रवण मात्र से (राक्षस्भावापन्न) सौदास भी श्रापमुक्त हो गए थे।
गौतमशापतः प्राप्तः सौदासो राक्षसीं तनुम् ॥४१॥
रामायणप्रभावेण विमुक्तिं प्राप्तवान् पुनः।
सौदास ने महर्षि गौतम के श्राप से राक्षस-शरीर प्राप्त किया था। वे रामायण के प्रभाव से ही पुनः उस श्राप से छुटकारा पा सके थे।
यस्त्वेतच्छृणुयाद् भक्त्या रामभक्तिपरायणः ॥४२॥
स मुच्यते महापापैः पुरुषः पतकादिभिः ॥४३॥
जो पुरुष श्री रामचंद्र जी की भक्ति का आश्रय ले प्रेमपूर्वक इस कथा का श्रवण करता है, वह बड़े-बड़े पापों तथा पातक आदि से मुक्त हो जाता है।
॥श्री स्कन्दपुराण में नारद-सनत्कुमार संवाद अंतर्गत रामायणमहात्म्य कल्प में वर्णित॥
बालकाण्डम्
प्रथमः सर्गः
तपस्स्वाध्यायनिरतं तपस्वी वाग्विदां वरम् ।
नारदं परिपप्रच्छ वाल्मीकिर्मुनिपुङ्गवम् ॥१.१.१॥
तपस्वी वाल्मीकि जी ने तपस्या और स्वाध्याय में लगे हुए विद्वानों में श्रेष्ठ मुनिवर नारद जी से पूछा।
कोन्वस्मिन्साम्प्रतं लोके गुणवान्कश्च वीर्यवान् ।
धर्मज्ञश्च कृतज्ञश्च सत्यवाक्यो दृढव्रत:॥१.१.२॥
मुने ! इस समय इस संसार में गुणवान्, वीर्यवान्, धर्मज्ञ, उपकार मानने वाला, सत्यवक्ता और दृढ़प्रतिज्ञ कौन है?
चारित्रेण च को युक्तस्सर्वभूतेषु को हित: ।
विद्वान्क: कस्समर्थश्च कश्चैकप्रियदर्शन: ॥१.१.३॥
सदाचार से युक्त, समस्त प्राणियों का हित साधक, विद्वान्, सामर्थ्यशाली और एकमात्र प्रियदर्शन पुरुष कौन है?
आत्मवान्को जितक्रोधो द्युतिमान्कोऽनसूयक: ।
कस्य बिभ्यति देवाश्च जातरोषस्य संयुगे ॥१.१.४॥
मन पर अधिकार रखनेवाला, क्रोध को जितने वाला, कान्तिमान् और किसी की भी निन्दा नहीं करने वाला कौन है? तथा संग्राम में कुपित होने पर किससे देवता भी डरते हैं?
एतदिच्छाम्यहं श्रोतुं परं कौतूहलं हि मे ।
महर्षे त्वं समर्थोऽसि ज्ञातुमेवंविधं नरम् ॥१.१.५॥
महर्षे ! मैं यह सुनना चाहता हूँ, इसके लिए मुझे बड़ी उत्सुकता है और आप ऐसे पुरुष को जानने में समर्थ हैं।
श्रुत्वा चैतत्त्रिलोकज्ञो वाल्मीकेर्नारदो वच: ।
श्रूयतामिति चामन्त्त्र्य प्रहृष्टो वाक्यमब्रवीत् ॥१.१.६॥
महर्षि वाल्मीकि के इस वचन को सुनकर तीनों लोकों का ज्ञान रखने वाले नारद जी ने उन्हें संबोधित करके कहा, अच्छा सुनिये और फिर प्रसन्नतापूर्वक बोले –
बहवो दुर्लभाश्चैव ये त्वया कीर्तिता गुणा: ।
मुने वक्ष्याम्यहं बुद्ध्वा तैर्युक्तश्श्रूयतान्नर: ॥१.१.७॥
मुने! आपने जिन बहुत-से दुर्लभ गुणों का वर्णन किया है, उनसे युक्त पुरुष को मैं विचार करके कहता हूँ, आप सुनें।
इक्ष्वाकुवंशप्रभवो रामो नाम जनैश्श्रुत: ।
नियतात्मा महावीर्यो द्युतिमान्धृतिमान् वशी ॥१.१.८॥
इक्ष्वाकु के वंश में उत्पन्न हुए एक ऐसे पुरुष हैं, जो लोगों में राम-नाम से विख्यात हैं, वे ही मन को वश में रखने वाले, महाबलवान्, कान्तिमान्, धैर्यवान् और जितेन्द्रिय हैं।
बुद्धिमान्नीतिमान्वाग्मी श्रीमान् शत्रुनिबर्हण: ।
विपुलांसो महाबाहु: कम्बुग्रीवो महाहनु: ॥१.१.९॥
वे बुद्धिमान्, नीतिज्ञ, वक्ता, शोभायमान तथा शत्रुसंहारक हैं। उनके कंधे मोटे और भुजाएँ बड़ी-बड़ी हैं। ग्रीवा शंख के समान और ठोढ़ी मांसल है।
महोरस्को महेष्वासो गूढजत्रुररिन्दमः ।
आजानुबाहुस्सुशिरास्सुललाटस्सुविक्रमः ॥१.१.१०॥
उनकी छाती चौड़ी तथा धनुष बड़ा है, गले के निचे की हड्डी (हँसली) मांस से छिपी हुई है। वे शत्रुओं का दमन करने वाले हैं। भुजाएँ घुटने तक लंबी हैं, मस्तक सुन्दर है, ललाट भव्य और चाल मनोहर है।
समस्समविभक्ताङ्गस्स्निग्धवर्ण: प्रतापवान् ।
पीनवक्षा विशालाक्षो लक्ष्मीवान् शुभलक्षणः ॥ १.१.११॥
उनका शरीर मध्यम और सुडौल है, देह का रंग चिकना है। वे बड़े प्रतापी हैं। उनका वक्षःस्थल भरा हुआ है, ऑंखें बड़ी-बड़ी हैं। वे शोभायमान और शुभलक्षणों से संपन्न हैं।
धर्मज्ञस्सत्यसन्धश्च प्रजानां च हिते रतः ।
यशस्वी ज्ञानसम्पन्नश्शुचिर्वश्यस्समाधिमान् ॥१.१.१२॥
धर्म के ज्ञाता, सत्यप्रतिज्ञ तथा प्रजा के हित-साधन में लगे रहने वाले हैं। वे यशस्वी, ज्ञानी, पवित्र, जितेन्द्रिय और मन को एकाग्र रखने वाले हैं।
प्रजापतिसमश्श्रीमान् धाता रिपुनिषूदनः ।
रक्षिता जीवलोकस्य धर्मस्य परिरक्षिता ॥१.१.१३॥
प्रजापति के समान पालक, श्रीसंपन्न, वैरीविध्वंसक और जीवों तथा धर्म के रक्षक हैं।
रक्षिता स्वस्य धर्मस्य स्वजनस्य च रक्षिता ।
वेदवेदाङ्गतत्त्वज्ञो धनुर्वेदे च निष्ठितः ॥१.१.१४॥
स्वधर्म और स्वजनों के पालक, वेद-वेदांगों के तत्वेत्ता तथा धनुर्वेद में प्रवीण हैं।
सर्वशास्त्रार्थतत्त्वज्ञस्स्मृतिमान्प्रतिभानवान् ।
सर्वलोकप्रियस्साधुरदीनात्मा विचक्षणः ॥१.१.१५॥
वे अखिल शास्त्रों के तत्वज्ञ, स्मरणशक्ति से युक्त और प्रतिभासंपन्न हैं। अच्छे विचार और उदार ह्रदय वाले वे श्रीरामचंद्र जी बातचीत करने में चतुर तथा समस्त लोकों के प्रिय हैं।
सर्वदाभिगतस्सद्भिस्समुद्र इव सिन्धुभिः ।
आर्यस्सर्वसमश्चैव सदैकप्रियदर्शनः ॥१.१.१६॥
जैसे नदियाँ समुद्र में मिलती हैं, उसी प्रकार सदा राम से साधु पुरुष मिलते रहते हैं। वे आर्य एवं सबमें समान भाव रखने वाले हैं, उनका दर्शन सदा ही प्रिय मालूम होता है।
स च सर्वगुणोपेत: कौसल्यानन्दवर्धन: ।
समुद्र इव गाम्भीर्ये धैर्येण हिमवानिव ॥१.१.१७॥
सम्पूर्ण गुणों से युक्त वे श्रीरामचंद्र जी अपनी माता कौसल्या के आनंद को बढ़ाने वाले हैं, गंभीरता में समुद्र और धैर्य में हिमालय के समान हैं।
विष्णुना सदृशो वीर्ये सोमवत्प्रियदर्शन: ।
कालाग्निसदृश: क्रोधे क्षमया पृथिवीसम: ॥१.१.१८॥
धनदेन समस्त्यागे सत्ये धर्म इवापरः।
वे विष्णु भगवान् के समान बलवान हैं। उनका दर्शन चन्द्रमा के समान मनोहर प्रतीत होता है। वे क्रोध में कालाग्नि के समान और क्षमा में पृथिवी के सदृश्य हैं, त्याग में कुबेर और सत्य में द्वितीय धर्मराज के समान हैं।
तमेवं गुणसम्पन्नं रामं सत्यपराक्रमम् ॥१.१.१९॥
ज्येष्ठं श्रेष्ठगुणैर्युक्तं प्रियं दशरथ सुतम् ।
प्रकृतीनां हितैर्युक्तं प्रकृतिप्रियकाम्यया ॥१.१.२०॥
यौवराज्येन संयोक्तुमैच्छत्प्रीत्या महीपति: ।
इस प्रकार उत्तम गुणों से युक्त और सत्य पराक्रम वाले सद्गुणशाली उपने प्रियतम ज्येष्ठ पुत्र को, जो प्रजा के हित में संलग्न रहने वाले थे, प्रजावर्ग का हित करने की इच्छा से राजा दशरथ ने प्रेमवश युवराज पद पर अभिषिक्त करना चाहा।
तस्याभिषेकसम्भारान्दृष्ट्वा भार्याऽथ कैकयी ॥१.१.२१॥
पूर्वं दत्तवरा देवी वरमेनमयाचत ।
विवासनं च रामस्य भरतस्याभिषेचनम् ॥१.१.२२॥
तदन्तर राम के राज्याभिषेक की तैयारियाँ देखकर रानी कैकेयी ने, जिसे पहले ही वर दिया जा चूका था, राजा से यह वे माँगा कि राम निर्वासन (वनवास) और भरत का राज्याभिषेक हो।
स सत्यवचनाद्राजा धर्मपाशेन संयत: ।
विवासयामास सुतं रामं दशरथ: प्रियम् ॥१.१.२३॥
राजा दशरथ ने सत्य वचन के कारण धर्म-बंधन में बंधकर प्यारे पुत्र राम को वनवास दे दिया।
स जगाम वनं वीर: प्रतिज्ञामनुपालयन्।
पितुर्वचननिर्देशात्कैकेय्या: प्रियकारणात् ॥१.१.२४॥
कैकेयी का प्रिय करने के लिए पिता की आज्ञा के अनुसार उनकी प्रतिज्ञा का पालन करते हुए वीर रामचंद्र वन को चले।
तं व्रजन्तं प्रियो भ्राता लक्ष्मणोऽनुजगाम ह ।
स्नेहाद् विनयसम्पन्नस्सुमित्रानन्दवर्धन: ॥१.१.२५॥
भ्रातरं दयितो भ्रातुस्सौभ्रात्रमनुदर्शयन् ।
तब सुमित्रा के आनंद को बढ़ाने वाले विनयशील लक्ष्मण जी ने भी, जो अपने बड़े भाई राम को बहुत ही प्रिय थे, अपने सुबंधुत्व का परिचय देते हुए स्नेहवश वन को जाने वाले बंधुवर राम का अनुसरण किया।
रामस्य दयिता भार्या नित्यं प्राणसमा हिता ॥१.१.२६॥
जनकस्य कुले जाता देवमायेव निर्मिता ।
सर्वलक्षणसम्पन्ना नारीणामुत्तमा वधू: ॥१.१.२७॥
सीताप्यनुगता रामं शशिनं रोहिणी यथा ।
पौरैरनुगतो दूरं पित्रा दशरथेन च ॥१.१.२८॥
और जनक के कुल में उत्पन्न सीता भी, जो अवतीर्ण हुई देवमाया की भांति सुंदरी, समस्त शुभ लक्षणों से विभूषित, स्त्रियों में उत्तम, राम के प्राणों के समान प्रियतमा पत्नी तथा सदा ही पति का हित चाहने वाली थी, रामचंद्र जी के पीछे चली; जैसे चन्द्रमा के पीछे रोहिणी चलती है। उस पिता दशरथ (ने अपना सारथि भेजकर) और पुरवासी मनुष्यों ने (स्वयं साथ जाकर) दूर तक उनका अनुसरण किया।
शृङ्गिबेरपुरे सूतं गङ्गाकूले व्यसर्जयत् ।
गुहमासाद्य धर्मात्मा निषादाधिपतिं प्रियम् ॥१.१.२९॥
फिर श्रृंग्वेरपुर में गंगा तट पर अपने प्रिय निषादराज गुह के पास पहुँचकर धर्मात्मा श्री रामचंद्र जी ने सारथि को (अयोध्या के लिए) विदा कर दिया।
गुहेन सहितो रामो लक्ष्मणेन च सीतया ।
ते वनेन वनं गत्वा नदीस्तीर्त्वा बहूदका: ॥१.१.३०॥
चित्रकूटमनुप्राप्य भरद्वाजस्य शासनात् ।
रम्यमावसथं कृत्वा रममाणा वने त्रय: ॥१.१.३१॥
देवगन्धर्वसङ्काशास्तत्र ते न्यवसन् सुखम् ।
निषादराज गुह, लक्ष्मण और सीता के साथ- ये चारों एक वन से दूसरे वन में गए। मार्ग में बहुत जलों वाली अनेकों नदियों को पार करके (भरद्वाज के आश्रम पर पहुंचे और गुह को वहीँ छोड़) भरद्वाज मुनि की आज्ञा से चित्रकूट-पर्वत पर गए। वहाँ वे तीनों देवता और गन्धर्वों के समान वन में नाना प्रकार की लीलाएँ करते हुए एक रमणीय पर्णकुटी बनाकर उसमें सानंद रहने लगे।
चित्रकूटं गते रामे पुत्रशोकातुरस्तथा ॥१.१.३२॥
राजा दशरथस्स्वर्गं जगाम विलपन्सुतम् ।
राम के चित्रकूट चले जाने पर पुत्रशोक से पीड़ित राजा दशरथ उस समय पुत्र के लिए (उसका नाम ले-लेकर) विलाप करते हुए स्वर्गगामी हुए।
मृते तु तस्मिन्भरतो वसिष्ठप्रमुखैर्द्विजै: ॥ १.१.३३॥
नियुज्यमानो राज्याय नैच्छद्राज्यं महाबल:।
स जगाम वनं वीरो रामपादप्रसादक: ॥ १.१.३४ ॥
उनके स्वर्गगमन के पश्चात् वशिष्ठ आदि प्रमुख ब्राम्हणों द्वारा राज्य सञ्चालन के लिए नियुक्त किये जाने पर भी महाबलशाली वीर भरत ने राज्य की कामना न करके पूज्य राम को प्रसन्न करने के लिए वन को ही प्रस्थान किया।
गत्वा तु सुमहात्मानं रामं सत्यपराक्रमम् ।
अयाचद्भ्रातरं राममार्यभावपुरस्कृत: ॥१.१.३५॥
त्वमेव राजा धर्मज्ञ इति रामं वचोऽब्रवीत् ।
वहाँ पहुँचकर सद्भावनायुक्त भरतजी ने अपने बड़े भाई सत्यपराक्रमी महात्मा राम से याचना की और यों कहा- धर्मज्ञ ! आप ही राजा हों।
रामोऽपि परमोदारस्सुमुखस्सुमहायशा: ।
न चैच्छत्पितुरादेशाद्राज्यं रामो महाबल: ॥१.१.३६॥
पादुके चास्य राज्याय न्यासं दत्वा पुन:पुन: ।
निवर्तयामास ततो भरतं भरताग्रज: ॥१.१.३७॥
परंतु महान् यशस्वी परम उदार प्रसन्नमुख महाबली राम ने भी पिता के आदेश का पालन करते हुए राज्य की अभिलाषा न की और उन भरताग्रज ने राज्य के लिए न्यास (चिन्ह) रूप में अपनी खडाऊं भरत को देकर उन्हें बार-बार आग्रह करके लौटा दीया।
स काममनवाप्यैव रामपादावुपस्पृशन् ॥१.१.३८॥
नन्दिग्रामेऽकरोद्राज्यं रामागमनकाङ्क्षया ।
अपनी अपूर्ण इच्छा को लेकर ही भरत ने राम के चरणों का स्पर्श किया और राम के आगमन की प्रतीक्षा करते हुए वे नंदीग्राम में राज्य करने लगे।
गते तु भरते श्रीमान् सत्यसन्धो जितेन्द्रिय: ॥१.१.३९॥
रामस्तु पुनरालक्ष्य नागरस्य जनस्य च ।
तत्रागमनमेकाग्रो दण्डकान्प्रविवेश ह ॥१.१.४०॥
भरत के लौट जाने पर सत्यप्रतिज्ञ जितेन्द्रिय श्रीमान् राम ने वहाँ पर पुनः नागरिक जनों का आना-जाना देखकर (उनसे बचने के लिए) एकाग्र भाव से दंडकारण्य में प्रवेश किया।
प्रविश्य तु महारण्यं रामो राजीवलोचनः ।
विराधं राक्षसं हत्वा शरभङ्गं ददर्श ह ॥१.१.४१॥
सुतीक्ष्णं चाप्यगस्त्यं च अगस्त्यभ्रातरं तथा ।
उस महान वन में पहुँचने पर कमललोचन राम ने विराध नामक राक्षस को मारकर शरभंग, सुतीक्ष्ण, अगस्त्य के भ्राता का दर्शन किया।
अगस्त्यवचनाच्चैव जग्राहैन्द्रं शरासनम् ॥१.१.४२॥
खड्गं च परमप्रीतस्तूणी चाक्षयसायकौ ।
फिर अगस्त्य मुनि के कहने से उन्होंने ऐन्द्र धनुष, एक खंग और दो तूणीर, जिनमें बाण कभी नहीं घटते थे, प्रसन्नतापूर्वक ग्रहण किये।
वसतस्तस्य रामस्य वने वनचरैस्सह ॥१.१.४३॥
ऋषयोऽभ्यागमन्सर्वे वधायासुररक्षसाम् ।
एक दिन वन में वनचरों के साथ रहने वाले श्रीराम के पास असुर तथा राक्षसों के वध के लिए निवेदन करने को वहाँ के सभी ऋषि आये।
स तेषां प्रतिशुश्राव राक्षसानां तथा वने ॥१.१.४४॥
प्रतिज्ञातश्च रामेण वधस्संयति रक्षसाम् ।
ऋषीणामग्निकल्पानां दण्डकारण्यवासिनाम् ॥१.१.४५॥
उस समय वन में श्रीराम ने दण्डकारण्यवासी अग्नि के समान तेजस्वी उन ऋषियों को राक्षसों के मारने का वचन दिया और संग्राम में उनके वध की प्रतिज्ञा की।
तेन तत्रैव वसता जनस्थाननिवासिनी ।
विरूपिता शूर्पणखा राक्षसी कामरूपिणी ॥१.१.४६॥
वहाँ ही रहते हुए श्रीराम ने इच्छानुसार रूप बनाने-वाली जनस्थाननिवासिनी शूर्पणखा नाम की राक्षसी को (लक्ष्मण के द्वारा उसकी नाक काटकर) कुरूप कर दिया।
ततश्शूर्पणखावाक्यादुद्युक्तान्सर्वराक्षसान् ।
खरं त्रिशिरसं चैव दूषणं चैव राक्षसम् ॥१.१.४७॥
निजघान वने रामस्तेषां चैव पदानुगान् ।
तब शूर्पणखा के कहने से चढ़ाई करने वाले सभी राक्षसों को और खर, दूषण, त्रिशिरा तथा उनके पृष्ठपोषक असुरों को राम ने युद्ध में मार डाला।
वने तस्मिन्निवसता जनस्थाननिवासिनाम् ॥१.१.४८॥
रक्षसां निहतान्यासन्सहस्राणि चतुर्दश ।
उस वन में निवास करते हुए उन्होंने जनस्थानवासी चौदह हजार राक्षसों का वध किया।
ततो ज्ञातिवधं श्रुत्वा रावणः क्रोधमूर्छितः ॥१.१.४९॥
सहायं वरयामास मारीचं नाम राक्षसम् ।
तदन्तर अपने कुटुंब का वध सुनकर रावण नाम का राक्षस क्रोध से मूर्च्छित हो उठा और उसने मारीच राक्षस से सहायता माँगी।
वार्यमाणस्सुबहुशो मारीचेन स रावणः ॥१.१.५०॥
न विरोधो बलवता क्षमो रावण तेन ते ।
अनादृत्य तु तद्वाक्यं रावण: कालचोदित: ॥१.१.५१॥
जगाम सह मारीचस्तस्याश्रमपदं तदा ।
यद्यपि मारीच ने यह कहकर कि रावण ! उस बलवान् राम के साथ तुम्हारा विरोध ठीक नहीं है, रावण को अनेकों बार मना किया; परंतु काल की प्रेरणा से रावण ने मारीच के वाक्यों को ताल दिया और उसने साथ ही राम के आश्रम पर गया।
तेन मायाविना दूरमपवाह्य नृपात्मजौ ॥१.१.५२॥
जहार भार्यां रामस्य गृध्रं हत्वा जटायुषम् ।
मायावी मारीच के द्वारा उसने दोनों राजकुमारों को आश्रम से दूर हटा दिया और स्वयं राम की पत्नी सीता का अपहरण कर लिया, (जाते समय मार्ग में विघ्न डालने के कारण) उसने जटायु नामक गृध्र का वध किया।
गृध्रं च निहतं दृष्ट्वा हृतां श्रुत्वा च मैथिलीम् ॥१.१.५३॥
राघवश्शोकसन्तप्तो विललापाकुलेन्द्रिय: ।
तत्पश्चात जटायु को आहात देखकर और (उसी के मुख से) सीता का हरण सुनकर रामचंद्र जी शोक से पीड़ित होकर विलाप करने लगे, उस समय उनकी सभी इन्द्रियाँ व्याकुल हो उठी थीं।
ततस्तेनैव शोकेन गृध्रं दग्ध्वा जटायुषम् ॥१.१.५४॥
मार्गमाणो वने सीतां राक्षसं सन्ददर्श ह ।
कबन्धन्नाम रूपेण विकृतं घोरदर्शनम् ॥१.१.५५॥
तं निहत्य महाबाहुर्ददाह स्वर्गतश्च स: ।
फिर उसी शोक में पड़े हुए उन्होंने जटायु गृध्र का अग्निसंस्कार किया और वन में सीता को ढूँढ़ते हुए कबंध नामक राक्षस को देखा, जो शरीर से विकृत तथा भयंकर दिखनेवाला था। महाबाहु राम ने उसे मारकर उसका भी दाह किया, अतः वह स्वर्ग को चला गया।
स चास्य कथयामास शबरीं धर्मचारिणीम् ॥१.१.५६॥
श्रमणीं धर्मनिपुणामभिगच्छेति राघव ।
जाते समय उसने राम से धर्मचारिणी शबरी का पता बतलाया और कहा – रघुनन्दन ! आप धर्मपरायण सन्यासिनी शबरी के आश्रम पर जाइये।
सोऽभ्यगच्छन्महातेजाश्शबरीं शत्रुसूदन: ॥१.१.५७॥
शबर्या पूजितस्सम्यग्रामो दशरथात्मज: ।
शत्रुहन्ता महान् तेजस्वी दशरथ कुमार राम शबरी के यहाँ गए, उसने इनका भली भांति पूजन किया।
पम्पातीरे हनुमता सङ्गतो वानरेण ह ॥१.१.५८॥
हनुमद्वचनाच्चैव सुग्रीवेण समागत: ।
फिर वे पम्पासर के तट पर हनुमान् नामक वानर से मिले और उन्हीं के कहने से सुग्रीव से भी मेल किया।
सुग्रीवाय च तत्सर्वं शंसद्रामो महाबल: ॥१.१.५९॥
आदितस्तद्यथावृत्तं सीतायाश्च विशेषत: ।
तदनन्तर महाबलवान् राम ने आदि से ही लेकर जो कुछ हुआ वह और विशेषतः सीता का वृतांत सुग्रीव से कह सुनाया।
सुग्रीवश्चापि तत्सर्वं श्रुत्वा रामस्य वानर: ॥१.१.६०॥
चकार सख्यं रामेण प्रीतश्चैवाग्निसाक्षिकम् ।
वानर सुग्रीव ने राम की सारी बातें सुनकर उनके साथ प्रेमपूर्वक अग्नि को साक्षी बनाकर मित्रता की।
ततो वानरराजेन वैरानुकथनं प्रति ॥१.१.६१॥
रामायावेदितं सर्वं प्रणयाद्दु:खितेन च ।
उसके बाद वानर राज सुग्रीव ने स्नेहवश वाली के साथ वैर होने की सारी बातें राम से दुखी होकर बतलायीं।
प्रतिज्ञातं च रामेण तदा वालिवधं प्रति ॥१.१.६२॥
वालिनश्च बलं तत्र कथयामास वानर: ।
सुग्रीवश्शङ्कितश्चासीन्नित्यं वीर्येण राघवे ॥१.१.६३॥
उस समय राम ने वाली को मारने की प्रतिज्ञा की, तब वानर सुग्रीव ने वहाँ वाली के बल का वर्णन किया; क्योंकि सुग्रीव को राम के बल के विषय में बराबर शंका बनी रहती थी।
राघवप्रत्ययार्थं तु दुन्दुभे: कायमुत्तमम् ।
दर्शयामास सुग्रीवो महापर्वतसन्निभम् ॥१.१.६४॥
राम की प्रतीति के लिए उन्होंने दुन्दुभि दैत्य का महान् पर्वत के समान विशाल शरीर दिखलाया।
उत्स्मयित्वा महाबाहु: प्रेक्ष्य चास्थि महाबल: ।
पादाङ्गुष्ठेन चिक्षेप सम्पूर्णं दशयोजनम् ॥१.१.६५॥
महाबली महाबाहु श्रीराम ने तनिक मुस्कराकर उस अस्थि समूह को देखा और पैर के अँगूठे से उसे दस योजन दूर फेंक दिया।
बिभेद च पुनस्सालान्सप्तैकेन महेषुणा ।
गिरिं रसातलं चैव जनयन्प्रत्ययं तदा ॥१.१.६६॥
फिर एक ही महान् बाण से उन्होंने अपना विश्वास दिलाते हुए सात तालवृक्षों को और पर्वत तथा रसातल बींध डाला।
तत: प्रीतमनास्तेन विश्वस्तस्स महाकपि: ।
किष्किन्धां रामसहितो जगाम च गुहां तदा ॥१.१.६७॥
तदन्तर राम के इस कार्य से महाकपि सुग्रीव मन-ही-मन प्रसन्न हुए और उन्हें राम पर विश्वास हो गया। फिर वे उनके साथ किष्किन्धा गुहा में गए।
ततोऽगर्जद्धरिवर: सुग्रीवो हेमपिङ्गल: ।
तेन नादेन महता निर्जगाम हरीश्वर: ॥१.१.६८॥
अनुमान्य तदा तारां सुग्रीवेण समागत: ।
निजघान च तत्रैनं शरेणैकेन राघव: ॥१.१.६९॥
वहाँ पर सुवर्ण के समान पिंगलवर्ण वाले वीरवर सुग्रीव ने गर्जना की, उस महानाद को सुनकर वानर राज वाली अपनी पत्नी तारा को आश्वासन देकर तत्काल घर से बाहर निकला और सुग्रीव से भिड गया। वहाँ राम ने वाली को एक ही बाण से मार गिराया।
ततस्सुग्रीववचनाद्धत्वा वालिनमाहवे ।
सुग्रीवमेव तद्राज्ये राघव: प्रत्यपादयत् ॥१.१.७०॥
सुग्रीव के कथनानुसार उस संग्राम में वाली को मारकर उसके राज्य पर राम ने सुग्रीव को ही बिठा दिया।
स च सर्वान्समानीय वानरान्वानरर्षभ: ।
दिश: प्रस्थापयामास दिदृक्षुर्जनकात्मजाम् ॥१.१.७१॥
तब उन वानर राज ने भी सभी वानरों को बुलाकर जानकी का पता लगाने के लिए उन्हें चारों दिशाओं में भेजा।
ततो गृध्रस्य वचनात्सम्पातेर्हनुमान्बली।
शतयोजनविस्तीर्णं पुप्लुवे लवणार्णवम्॥१.१.७२॥
तत्पश्चात सम्पाती नामक गृध्र के कहने से बलवान् हनुमान् जी सौ योजन विस्तार वाले क्षार सागर समुद्र को कूद कर लाँघ गये।
तत्र लङ्कां समासाद्य पुरीं रावणपालिताम् ।
ददर्श सीतां ध्यायन्तीमशोकवनिकां गताम् ॥१.१.७३॥
वहाँ रावण पालित लंकापुरी में पहुँचकर उन्होंने अशोक वाटिका में सीता को चिंतामग्न देखा।
निवेदयित्वाऽऽभिज्ञानं प्रवृत्तिं च निवेद्य च ।
समाश्वास्य च वैदेहीं मर्दयामास तोरणम् ॥१.१.७४॥
तब विदेहनन्दिनी को अपनी पहचान देकर राम का संदेश सुनाया और उन्हें सान्त्वना देकर उन्होंने वाटिका का द्वार तोड़ डाला।
पञ्च सेनाग्रगान्हत्वा सप्तमन्त्रिसुतानपि ।
शूरमक्षं च निष्पिष्य ग्रहणं समुपागमत् ॥१.१.७५॥
फिर पाँच सेनापतियों और सात मंत्रिकुमारों की हत्या कर वीर अक्षय कुमार का भी कचूमर निकाला, उसके बाद वे (जान-बूझकर) पकड़े गये।
अस्त्रेणोन्मुक्तमात्मानं ज्ञात्वा पैतामहाद्वरात् ।
मर्षयन्राक्षसान्वीरो यन्त्रिणस्तान्यदृच्छया ॥१.१.७६॥
ब्रह्माजी के वरदान से अपने को ब्रह्मपाश से छूटा हुआ जानकर भी वीर हनुमान जी ने अपने कको बाँधनेवाले उन राक्षसों का अपराध स्वेच्छानुसार सह लिया।
ततो दग्ध्वा पुरीं लङ्कामृते सीतां च मैथिलीम् ।
रामाय प्रियमाख्यातुं पुनरायान्महाकपि: ॥१.१.७७॥
तत्पश्चात् मिथिलेशकुमारी सीता के (स्थान के) अतिरिक्त समस्त लंका को जलाकर वे महाकपि हनुमान् जी राम को प्रिय संदेश सुनाने के लिए लंका से लौट आये।
सोऽधिगम्य महात्मानं कृत्वा रामं प्रदक्षिणम् ।
न्यवेदयदमेयात्मा दृष्टा सीतेति तत्त्वत: ॥१.१.७८॥
अपरिमित बुद्धिशाली हनुमान् जी ने वहाँ जा महात्मा राम की प्रदक्षिणा करके यों सत्य निवेदन किया – मैंने सीता जी का दर्शन किया है।
ततस्सुग्रीवसहितो गत्वा तीरं महोदधे: ।
समुद्रं क्षोभयामास शरैरादित्यसन्निभै: ॥१.१.७९॥
इसके अनंतर सुग्रीव के साथ भगवान् राम ने महासागर के तट पर जाकर सूर्य के समान तेजस्वी बाणों से समुद्र को क्षुब्ध किया।
दर्शयामास चात्मानं समुद्रस्सरितां पति: ।
समुद्रवचनाच्चैव नलं सेतुमकारयत् ॥१.१.८०॥
तब नदीपति समुद्र ने अपने को प्रकट कर दिया, फिर समुद्र के ही कहने से राम ने नल से पुल निर्माण कराया।
तेन गत्वा पुरीं लङ्कां हत्वा रावणमाहवे ।
राम: सीतामनुप्राप्य परां व्रीडामुपागमत् ॥१.१.८१॥
उसी पुल से लंकापुरी में जाकर रावण को मारा, फिर सीता के मिलने पर राम को बड़ी लज्जा हुई।
तामुवाच ततो राम: परुषं जनसंसदि ।
अमृष्यमाणा सा सीता विवेश ज्वलनं सती ॥१.१.८२॥
तब भरी सभा में सीता के प्रति वे मर्मभेदी वचन कहने लगे। उनकी इस बात को न सह सकने के कारण साध्वी सीता अग्नि में प्रवेश कर गयीं।
ततोऽग्निवचनात्सीतां ज्ञात्वा विगतकल्मषाम् ।
कर्मणा तेन महता त्रैलोक्यं सचराचरम् ॥१.१.८३॥
सदेवर्षिगणं तुष्टं राघवस्य महात्मन: ।
इसके बाद अग्नि के कहने से उन्होंने सीता को निष्कलंक माना। महात्मा रामचंद्र जी के इस महान् कर्म से देवता और ऋषियों सहित चराचर त्रिभुवन संतुष्ट हो गया।
बभौ रामस्सम्प्रहृष्ट: पूजितस्सर्वदैवतै: ॥१.१.८४॥
अभिषिच्य च लङ्कायां राक्षसेन्द्रं विभीषणम् ।
कृतकृत्यस्तदा रामो विज्वर: प्रमुमोद ह ॥१.१.८५॥
फिर सभी देवताओं से पूजित होकर राम बहुत ही प्रसन्न हुए और राक्षसराज विभीषण को लंका के राज्य पर अभिषिक्त करके कृतार्थ हो गये। उस समय निश्चिन्त होने के कारण उनके आनंद का ठिकाना न रहा।
देवताभ्यो वरं प्राप्य समुत्थाप्य च वानरान् ।
अयोध्यां प्रस्थितो राम: पुष्पकेण सुहृद्वृत: ॥१.१.८६॥
यह सब हो जाने पर राम देवताओं से वर पाकर और मरे हुए वानरों को जीवन दिलाकर अपने सभी साथियों के साथ पुष्पक विमान पर चढ़कर अयोध्या के लिए प्रस्थित हुए।
भरद्वाजाश्रमं गत्वा रामस्सत्यपराक्रम: ।
भरतस्यान्तिकं रामो हनूमन्तं व्यसर्जयत् ॥१.१.८७॥
भरद्वाज मुनि के आश्रम पर पहुँचकर सबको आराम देनेवाले सत्यपराक्रमी राम ने भरत के पास हनुमान् को भेजा।
पुनराख्यायिकां जल्पन्सुग्रीवसहितश्च स: ।
पुष्पकं तत्समारुह्य नन्दिग्रामं ययौ तदा ॥१.१.८८॥
फिर सुग्रीव के साथ कथा-वार्ता कहते हुए पुष्पकारूढ़ हो वे नंदीग्राम को गए।
नन्दिग्रामे जटां हित्वा भ्रातृभिस्सहितोऽनघ: ।
रामस्सीतामनुप्राप्य राज्यं पुनरवाप्तवान् ॥१.१.८९॥
निष्पाप रामचंद्र जी ने नंदीग्राम में अपनी जटा कटाकर भाइयों के साथ, सीता को पाने के अनंतर, पुनः अपना राज्य प्राप्त किया है।
प्रहृष्टमुदितो लोकस्तुष्ट: पुष्टस्सुधार्मिक: ।
निरामयो ह्यरोगश्च दुर्भिक्षभयवर्जित: ॥१.१.९०॥
अब राम के राज्य में लोग प्रसन्न, सुखी, संतुष्ट, पुष्ट, धार्मिक तथा रोग-व्याधि से मुक्त रहेंगे, उन्हें दुर्भिक्ष का भय न होगा।
न पुत्रमरणं किञ्चिद्द्रक्ष्यन्ति पुरुषा: क्वचित् ।
नार्यश्चाविधवा नित्यं भविष्यन्ति पतिव्रता: ॥१.१.९१॥
कोई कहीं भी अपने पुत्र की मृत्यु नहीं देखेंगे, स्त्रियाँ विधवा न होंगी, सदा ही पतिव्रता होंगी।
न चाग्निजं भयं किञ्चिन्नाप्सु मज्जन्ति जन्तव: ।
न वातजं भयं किञ्चिन्नापि ज्वरकृतं तथा ॥१.१.९२॥
आग लगने का किंचित् भी भय न होगा, कोई प्राणी जल में नहीं डूबेंगे, वात और ज्वर का भय थोड़ा भी नहीं रहेगा।
न चापि क्षुद्भयं तत्र न तस्करभयं तथा ।
नगराणि च राष्ट्राणि धनधान्ययुतानि च ॥१.१.९३॥
नित्यं प्रमुदितास्सर्वे यथा कृतयुगे तथा ।
क्षुधा तथा चोरी का डर भी जाता रहेगा, सभी नगर और राष्ट्र धन-धान्य संपन्न होंगे। सत्ययुग की भांति सभी लोग सदा प्रसन्न रहेंगे।
अश्वमेधशतैरिष्ट्वा तथा बहुसुवर्णकै: ॥१.१.९४॥
गवां कोट्ययुतं दत्वा ब्रह्मलोकं प्रयास्यति ।
असंख्येयं धनं दत्वा ब्राह्मणेभ्यो महायशा: ॥१.१.९५॥
राजवंशान्शतगुणान्स्थापयिष्यति राघव: ।
चातुर्वर्ण्यं च लोकेऽस्मिन् स्वे स्वे धर्मे नियोक्ष्यति ॥१.१.९६॥
महायशस्वी राम बहुत से सुवर्णों की दक्षिणा वाले सौ अश्वमेध यज्ञ करेंगे, उनमें विधिपूर्वक विद्वानों को दस हजार करोड़ (एक ख़रब) गौ और ब्राह्मणों को अपरमित धन देंगे तथा सौ गुने राजवंशों की स्थापना करेंगे। संसार में चारों वर्णों को वे अपने-अपने धर्म में नियुक्त रखेंगे।
दशवर्षसहस्राणि दशवर्षशतानि च ।
रामो राज्यमुपासित्वा ब्रह्मलोकं प्रयास्यति ॥ १.१.९७॥
फिर ग्यारह हजार वर्षों तक राज्य करने के अनंतर श्री रामचंद्र जी अपने परमधाम को पधारेंगे।
इदं पवित्रं पापघ्नं पुण्यं वेदैश्च सम्मितम् ।
य: पठेद्रामचरितं सर्वपापै: प्रमुच्यते ॥१.१.९८॥
वेदों के समान पवित्र, पापनाशक और पुण्यमय इस रामचरित को जो पढ़ेगा, वह सब पापों से मुक्त हो जायेगा।
एतदाख्यानमायुष्यं पठन्रामायणं नर: ।
सपुत्रपौत्रस्सगण: प्रेत्य स्वर्गे महीयते ॥ १.१.९९॥
आयु बढ़ाने वाली इस रामायण-कथा को पढ़ने वाला मनुष्य मृत्यु के अनंतर पुत्र, पौत्र तथा अन्य परिजन वर्ग के साथ ही स्वर्गलोक में प्रतिष्ठित होगा।
पठन्द्विजो वागृषभत्वमीयात्
स्यात्क्षत्रियो भूमिपतित्वमीयात् ।
वणिग्जन: पण्यफलत्वमीयात्
जनश्च शूद्रोऽपि महत्वमीयात् ॥१.१.१००॥
इसे ब्राह्मण पढ़े तो विद्वान हो, क्षत्रिय पढ़ता हो तो पृथ्वी का राज्य प्राप्त करे, वैश्य को व्यापार में लाभ हो और शुद्र भी प्रतिष्ठा प्राप्त करे।
बालकाण्डम्
पञ्चमः सर्गः
राजा दशरथ द्वारा सुरक्षित अयोध्यापुरी का वर्णन
सर्वापूर्वमियं येषामासीत्कृत्स्ना वसुन्धरा ।
प्रजापतिमुपादाय नृपाणां जयशालिनाम् ।।१।।
येषां स सगरो नाम सागरो येन खानितः ।
षष्टिः पुत्रसहस्राणि यं यान्तं पर्यवारयन् ।।२।।
इक्ष्वाकूणामिदं तेषां राज्ञां वंशे महात्मनाम् ।
महदुत्पन्नमाख्यानं रामायणमिति श्रुतम् ।।३।।
यह सारी पृथ्वी पूर्वकाल में प्रजापति मनु से लेकर अबतक जिस वंश के विजयशाली नरेशों के अधिकार में रही है, जिन्होंने समुद्र को खुदवाया था और जिन्हें यात्रा काल में साठ हजार पुत्र घेरकर चलते थे, वे महाप्रतापी राजा सगर जिनके कुल में उत्पन्न हुए, इन्हीं इक्ष्वाकुवंशी महात्मा राजाओं की कुल परंपरा में रामायण नाम से प्रसिद्ध इस महान ऐतिहासिक काव्य की अवतारणा हुई है।
तदिदं वर्तयिष्यामि सर्वं निखिलमादितः ।
धर्मकामार्थसहितं श्रोतव्यमनसूयया ।।४।।
हम दोनों (लव-कुश) आदि से अंत तक इस सारे काव्य का पूर्ण रूप से गान करेंगे। इसके द्वारा धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष चारों पुरुषार्थों की सिद्धि होती है; अतः आप लोग दोष दृष्टि का परित्याग करके इसका श्रवण करें।
#गान दो प्रकार के होते हैं- मार्ग और देशी। भिन्न-भिन्न देशों की प्राकृत भाषा में गाये जाने वाले गान को देशी कहते हैं और समूचे राष्ट्र में प्रसिद्ध संस्कृत आदि भाषा का आश्रय लेकर गाया हुआ गान मार्ग नाम से प्रसिद्ध है। कुमार कुश और लव संस्कृत भाषा का आश्रय लेकर इसी की रीति से गा रहे थे।
कोसलो नाम मुदितः स्फीतो जनपदो महान् ।
निविष्टः सरयूतीरे प्रभूतधनधान्यवान् ।।५।।
कोशल नाम से प्रसिद्ध एक बहुत बड़ा जनपद है, जो सरयू नदी के किनारे बसा हुआ है। वह प्रचुर धन-धान्य से संपन्न, सुखी और समृद्ध शाली है।
अयोध्या नाम नगरी तत्रासील्लोकविश्रुता ।
मनुना मानवेन्द्रेण या पुरी निर्मिता स्वयम् ।।६।।
उसी जनपद में अयोध्या नाम की एक नगरी है, जो समस्त लोकों में विख्यात है। उस पुरी को स्वयं महाराज मनु ने बनवाया और बसाया था।
आयता दश च द्वे च योजनानि महापुरी ।
श्रीमती त्रीणि विस्तीर्णा सुविभक्तमहापथा ।। ७।।
वह शोभाशालिनी महापुरी बारह योजन लंबी और तीन योजन चौड़ी थी। वहाँ बाहर के जनपदों में जाने का जो विशाल राजमार्ग था, वह उभयपार्श्व में विविध वृक्षावलियों से विभूषित होने के कारण सुस्पष्टतया अन्य मार्गों से विभक्त जान पड़ता था।
# एक योजन में २ कोस होता है और एक कोस में ४ मील होता है अर्थात एक योजन बराबर आज के पश्चिमी मान में लगभग १२ किलोमीटर होता है। इसी माप से १२ x ३ = ३६ वर्ग योजन या १४४ x ३६ = ५१८४ वर्ग किलोमीटर अयोध्यापुरी का प्राचीन क्षेत्रफल था।
राजमार्गेण महता सुविभक्तेन शोभिता ।
मुक्तपुष्पावकीर्णेन जलसिक्तेन नित्यशः ।।८।।
सुन्दर विभागपूर्वक बना हुआ महान् राजमार्ग उस पुरी की शोभा बढ़ा रहा था। उस पर खिले हुए फूल बिखेरे जाते थे तथा प्रतिदिन उसपर जल का छिड़काव होता था।
तां तु राजा दशरथो महाराष्ट्रविवर्धनः ।
पुरीमावासयामास दिवि देवपतिर्यथा ।।९।।
जैसे स्वर्ग में देवराज इंद्र ने अमरावतीपुरी बसाई थी, उसी प्रकार धर्म और न्याय के बल से अपने महान् राष्ट्र की वृद्धि करने वाले राजा दशरथ ने अयोध्यापुरी को पहले की अपेक्षा विशेषरूप से बसाया था।
कपाटतोरणवतीं सुविभक्तान्तरापणाम् ।
सर्वयन्त्रायुधवतीमुपेतां सर्वशिल्पिभिः ।।१०।।
वह पुरी बड़े-बड़े फाटकों और किवाड़ों से सुशोभित थी। उसके भीतर पृथक-पृथक बाजारें थीं। वहाँ सब प्रकार के यंत्र और अस्त्र-शस्त्र संचित थे। उस पुरी में सभी कलाओं के शिल्पी निवास करते थे।
सूतमागधसम्बाधां श्रीमतीमतुलप्रभाम् ।
उच्चाट्टालध्वजवतीं शतघ्नीशतसङ्कुलाम् ।। ११।।
स्तुति-पाठ करनेवाले सूत और वंशावली का बखान करने वाले मागध वहाँ भरे हुए थे। वह पुरी सुन्दर शोभा से संपन्न थी। उसकी सुषमा की कहीं तुलना नहीं थी। वहाँ ऊँची-ऊँची अट्टालिकाएँ थीं, जिनके ऊपर ध्वज फहराते थे। सैकड़ों शातघ्नियों (तोपों) से वह पुरी व्याप्त थी।
वधूनाटकसङ्घैश्च संयुक्तां सर्वतः पुरीम् ।
उद्यानाम्रवणोपेतां महतीं सालमेखलाम् ।।१२।।
उस पुरी में ऐसी बहुत-सी नाटक-मण्डलियाँ थीं, जिनमें केवल स्त्रियाँ ही नृत्य एवं अभिनय करती थीं। उस नगरी में चारों ओर उद्यान तथा आमों के बगीचे थे। लम्बाई और चौड़ाई की दृष्टि से वह पुरी बहुत विशाल थी तथा साखू के वन उसे सब ओर से घेरे हुए थे।
दुर्गगम्भीरपरिघां दुर्गामन्यैर्दुरासदाम् ।
वाजिवारणसम्पूर्णां गोभिरुष्ट्रैः खरैस्तथा ।।१३।।
उसके चारों ओर गहरी खाई खुदी थी, जिसमें प्रवेश करना या जिसे लाँघना अत्यंत कठिन था। वह नगरी दूसरों के लिए सर्वथा दुर्गम एवं दुर्जय थी। घोड़े, हाथी, गाय-बैल, ऊँट तथा गदहे आदि उपयोगी पशुओं से वह पुरी भरी-पूरी थी।
सामन्तराजसङ्घैश्च बलिकर्मभिरावृताम् ।
नानादेशनिवासैश्च वणिग्भिरुपशोभिताम् ।।१४।।
कर देने वाले सामंत नरेशों के समुदाय उसे सदा घेरे रहते थे। विभिन्न देशों के निवासी वैश्य उस पुरी की शोभा बढ़ाते थे।
प्रसादै रत्नविकृतैः पर्वतैरुपशोभिताम् ।
कूटागारैश्च सम्पूर्णामिन्द्रस्येवामरावतीम् ।।१५।।
वहाँ के महलों का निर्माण नाना प्रकार के रत्नों से हुआ था। वे गगन चुम्बी प्रासाद पर्वतों के समान जान पड़ते थे। उनसे उस पुरी की बड़ी शोभा हो रही थी। बहुसंख्यक कूटागारों (गुप्तगृहों अथवा स्त्रीयों के क्रीड़ा भवनों) से परिपूर्ण वह नगरी इंद्र की अमरावती के समान जान पड़ती थी।
चित्रामष्टापदाकारां वरनारीगणैर्युताम् ।
सर्वरत्नसमाकीर्णां विमानगृहशोभिताम् ।।१६।।
उसकी शोभा विचित्र थी। उसके महलों पर सोने का पानी चढ़ाया गया था (अथवा वह पुरी द्यूतफ़लक अर्थात वह चौकी जिसपर पासा बिछाया या खेला जाय, द्यूतफलक कहलाती है, के आकार में बसाई गयी थी) श्रेष्ठ एवं सुंदरी नारियों के समूह उस पुरी की शोभा बढ़ाते थे। वह सब प्रकार के रत्नों से भरी-पूरी तथा सप्तमहले से सुशोभित थी।
गृहगाढामविच्छिद्रां समभूमौ निवेशिताम् ।
शालितण्डुलसम्पूर्णामिक्षुकाण्डरसोदकाम् ।।१७।।
पुरवासियों के घरों से उसकी आबादी इतनी घनी हो गयी थी कि कहीं थोड़ा-सा भी अवकाश नहीं दिखायी देता था। उसे समतल भूमि पर बसाया गया था। वह नगरी जड़हन धान के चावलों से भरपूर थी। वहाँ का जल इतना मीठा और स्वादिष्ट था, मानों ईख का रस हो।
दुन्दुभीभिर्मृदङ्गैश्च वीणाभिः पणवैस्तथा ।
नादितां भृशमत्यर्थं पृथिव्यां तामनुत्तमाम् ।।१८।।
भूमण्डल की वह सर्वोत्तम नगरी दुंदुभि, मृदङ्ग, वीणा, पणव आदि वाद्यों कि मधुर ध्वनि से अत्यंत गूँजती रहती थी।
विमानमिव सिद्धानां तपसाधिगतं दिवि ।
सुनिवेशितवेश्मान्तां नरोत्तमसमावृताम् ।।१९।।
देवलोक में तपस्या से प्राप्त हुये सिद्धों के विमान की भांति उस पुरी का भूमण्डल में सर्वोत्तम स्थान था। वहाँ के सुंदर महल बहुत अच्छे ढंग से बनाए और बसाये गए थे। उनके भीतरी भाग बहुत ही सुंदर थे। बहुत-से श्रेष्ठ पुरुष उस पुरी में निवास करते थे।
ये च बाणैर्न विध्यन्ति विविक्तमपरापरम् ।
शब्दवेध्यं च विततं लघुहस्ता विशारदाः ।।२०।।
सिंहव्याघ्रवराहाणां मत्तानां नदतां वने ।
हन्तारो निशितैः शस्त्रैर्बलाद्बाहुबलैरपि ।।२१।।
तादृशानां सहस्रैस्तामभिपूर्णां महारथैः ।
पुरीमावासयामास राजा दशरथस्तदा ।।२२।।
जो अपने समूह से बिछड़कर असहाय हो गया हो, जिसके आगे-पीछे कोई न हो (अर्थात जो पिता और पुत्र दोनों से हीन हो) तथा जो शब्दवेदी बाण द्वारा बेधने योग्य हों अथवा युद्ध से हारकर भागे जा रहे हों, ऐसे पुरुषों पर जो लोग बाणों का प्रहार नहीं करते, जिनके सधे-सधाए हाथ शीघ्रता-पूर्वक लक्ष्य वेध करने में समर्थ हैं, अस्त्र-शस्त्रों के प्रयोग में कुशलता प्राप्त कर चुके हैं तथा जो वन में गर्जते हुए मतवाले सिंहों, व्याघ्रों और सूअरों को तीखे शस्त्रों से एवं भुजाओं के बल से भी बलपूर्वक मार डालने में समर्थ हैं, ऐसे सहस्त्रों महारथी वीरों से अयोध्यापुरी भरी-पूरी थी। उसे महाराज दशरथ ने बसाया और पाला था।
तामग्निमद्भिर्गुणवद्भिरावृतां
द्विजोत्तमैर्वेदषडङ्गपारगैः ।
सहस्रदैः सत्यरतैर्महात्मभिर्
महर्षिकल्पैरृषिभिश्च केवलैः ।।२३।।
अग्निहोत्री, शम-दम आदि उत्तम गुणों से सम्पन्न तथा छहों अंगों सहित सम्पूर्ण वेदों के पारंगत विद्वान् श्रेष्ठ ब्राह्मण उस पुरी को सदा घेरे रहते थे। वे सहस्त्रों का दान करने वाले और सत्य में तत्पर रहने वाले थे। ऐसे महर्षि कल्प महात्माओं तथा ऋषियों से अयोध्यापुरी सुशोभित थी तथा राजा दशरथ उसकी रक्षा करते थे।
॥श्री वाल्मीकिनिर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के बालकांड में पाँचवाँ सर्ग पूर्ण हुआ॥