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सभी को समान शिक्षा देने की भारतीय अनिवार्यता में चूक

भारत का अस्तित्व सनातन परंपरा से यदि है, तो इसके लिए भारत की शिक्षा व्यवस्था ही सबसे मजबूत सूत्र रहा है, जब सर्वप्रथम राज्य व्यवस्था का गठन हो रहा था और राजा प्रियव्रत के पुत्रों ने समस्त विश्व में राज्यव्यवस्था का क्रम प्रारंभ किया, जिसमें जम्मुद्विप के राजा ऋषभ द्वारा भारत का राज्य राजा भरत को दिया गया तभी से हम भारतीय अपने अस्तित्व को संरक्षित करते चले आ रहे हैं, इस घटना का इतिहास प्रथम मनु से प्रारंभ होकर आज सातवें मनु के २८ वें कलियुग में भी निरंतर है।

इतनी प्राचीन और सनातन ज्ञान को शिक्षा के कारण ही हम संरक्षित कर पाए हैं, सभी को शिक्षा प्राप्त हो, सामान्य शिक्षा प्राप्त हो, सभी किसी न किसी कौशल को ग्राह्य करें, सभी किसी न किसी स्तर पर उपयोगी हों, यह दायित्व शिक्षा के माध्यम से शासन अर्थात राज्य का होता है, परंतु आज इस प्रकार की व्यवस्था का नितांत अभाव है, जिसके कारण वे बालक-बालिका जिनके माता-पिता दैव योग से सक्षम हैं उनके लिए शिक्षा धन के बल पर सरलता से ग्राह्य है, या जो बालक-बालिका प्रतिभावान और/या लगनशील हैं वे माता-पिता के अक्षम होने पर भी अपने को सफल कर पाते हैं, परंतु जिनकी प्रवृत्ति सामान्य है, जो सामान्य परिवारों से आते हैं, निर्धन परिवारों से आते हैं उनके लिए शिक्षा एक अनुपयोगी तंत्र ही है।

कारण एक ओर जहाँ भारतीय शिक्षा व्यवस्था के नाम पर उपनिवेश काल के मैकाले प्रणीत व्यवस्था में हमारी शिक्षा आज भी जकड़ी हुई है, दूसरी ओर भारत पर बलात शासन करने वाले इस्लामिक और इसाई तंत्र को विशेषाधिकार देकर भारत के स्वाभाविकता को भारतीयता से दूर करके अरब और यूरोप के मानस पुत्रों का केंद्र बनाया जा रहा है।

जब भावनात्मक स्तर की बात होती है तो सभी भारत माता की संताने हैं, चाहे वह निर्धन हो या धनवान, परंतु जब भारत सरकार जो की एक संविधान द्वारा संचालित है, अपने दायित्वों को पूर्ण करने का यत्न करती है तो वह सभी संतानों को समान और अनिवार्य शिक्षा देने में विफल हो जाती है, भले ही संविधान का अनच्छेद २१ अ निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा की बात करता हो परंतु यह बात न तो पूर्ण है और जितना है भी वह असफल है। अपूर्ण इसलिए है क्योंकि इस शिक्षा को केवल ६ से १४ वर्ष तक के लिए ही देने की बात कही गई है और उसके बाद क्या? इससे संविधान प्रणीत सरकार से कोई संबंध नहीं है, आपने पैदा किया है आप ही संभालो, हाँ, जब शिक्षा के तंत्र को संचालित करने की बात आती है तो शिक्षा का अतिरिक्त कर सभी से समान रूप से और अनिवार्तः ले लिया जाता है।

असफल इसलिए कि जब शिक्षा निःशुल्क और अनिवार्य है तो कोई शिक्षण संस्थान, निजी या सरकारी शुल्क क्यों और कैसे ले सकता है? दूसरा विषय यह है कि १४ वर्ष के पश्चात बालक-बालिका का क्या होगा? इसके विषय में भी संविधान व सरकार मौन स्थिति में ही हैं।

वैसे तो सभी भारतीय सनातन काल से बंधुत्व भाव से बंधे हुए हैं परंतु अन्धकार काल या गुलामी के काल खंड में आक्रान्ताओं के भय, दबाव व प्रलोभन के कारण बहुत से बंधुओं ने मुस्लिम और ईसाई बनना स्वीकार कर लिया और जब देश ने स्वतंत्रता के पश्चात अपने शासन का विधान बनाया तो उक्त आक्रान्ताओं के संरक्षकों के दबाव में इन आक्रान्ताओं की संस्कृति को पोषित और पल्लवित करने वाले शिक्षा तंत्र को संविधान में विशेष प्रावधान कर दिए गए। जिसके कारण मदरसा और चर्च के स्कूल प्रणाली द्वारा भारतीयता विहीन मानस पुत्रों के उत्पादन केंद्र आज भी आक्रान्ता मानसिकता को लगातार भारत पर बलात उत्पन्न कर रहे हैं और भारत आज भी उन आक्रान्ताओं के भय और दबाव को महसूस करता है, आज भी मुस्लिम और ईसाई मनमानी को कोई विकल्प भारतीय शासन के पास नहीं है और भारत की सनातन परम्परा के अवशेष हिन्दू उनके आगे अपने को अक्षम महसूस करते हैं।

वर्तमान स्थिति ऐसी ही है, सरकार प्रत्येक पांच वर्ष में अपने अस्तित्व को बनाये रखने हेतु चिंतित रहती है, भारत में उत्पन्न होने वाले बालक-बालिका आक्रान्ताओं और संविधान प्रणीत उपनिवेश काल से ओतप्रोत प्रणाली के भरोसे अनाथ के स्वरुप छोड़ दिए गए हैं, सक्षम-अक्षम माता पिता अपने क्षमता के अनुसार बच्चों की शिक्षा हेतु प्रयास करते रहते हैं, शिक्षा की देवी सरस्वती, धन की देवी लक्ष्मी के यहाँ चाकरी करने को मजबूर हैं, और भारत में विदेशी शासन नहीं होने के बाद भी देशी मानस पुत्रों का प्रजनन असंभव होता जा रहा है।

स्थिति इतनी भयावह है कि एक माता-पिता अपने बच्चे को अपना समय-धन-प्यार इत्यादि देकर जब शिक्षित कर देते हैं तो वह सबसे पहले अपने परिवार के संस्कारों से घृणा करता है, अपने क्षेत्र/राष्ट्र की भाषा को छोड़कर अंग्रेजी में अपना अभिमान खोजता है, भारत के सरकारी संस्थानों में, भारत के जनता के कर से चलने वाले आईआईएम और IIT जैसे संस्थानों में पढ़कर गोरे विदेशी सेठों की चाकरी करता है, देश के सामान्य जनों को उससे कुछ भी प्राप्त नहीं होता है। बोते हम हैं और जब फसल पकती है तो कटता कोई और है, जो माता-पिता, देश-समाज बच्चों का पालन और पोषण करते हैं, वे ही आवश्यकता पड़ने पर चंद चांदी के टुकड़ों और सुख सुविधा के लिए अपना मार्ग बदल लेते हैं।

यदि उक्त समस्या से पीछा छुड़ाना है तो रामराज्य प्रशासन, अयोध्यापुरी के साथ जुड़कर देश समाज राष्ट्र का कार्य इस प्रकार से करें कि भारतीय शिक्षा प्रणाली सर्व सुलभ और भारतीय संस्कृति के अनुकूल किया जा सके, जो विश्व के लिए कल्याणकारी भी हो।

जय श्री राम

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